Lekhika Ranchi

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रंगभूमि--मुंशी प्रेमचंद


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प्रभु सेवक-अगर आप इतना डर रहे हैं, तो उचित है कि आप इस संस्था को उसके हाल पर छोड़ दें। आप दो नौकाओं पर बैठकर नदी पार करना चाहते हैं, यह असम्भव है। मुझे रईसों पर पहले भी विश्वास न था, और अब तो निराशा-सी हो गई है।
कुँवर-तुम मेरी गिनती रईसों में क्यों करते हो, जब तुम्हें मालूम है कि मुझे रियासत की परवा नहीं। लेकिन कोई काम धन के बगैर तो नहीं चल सकता। मैं नहीं चाहता कि अन्य राष्ट्रीय संस्थाओं की भाँति इस संस्था को भी धनाभाव के कारण हम टूटते देखें।
प्रभु सेवक-मैं बड़ी-से-बड़ी जाएदाद को भी सिध्दांत के लिए बलिदान कर देने में दरेग न करूँगा।
कुँवर-मैं भी न करता, यदि जाएदाद मेरी होती। लेकिन यह जाएदाद मेरे वारिसों की है, और मुझे कोई अधिकार नहीं है कि उनकी इच्छा के बगैर उनकी जाएदाद की उत्तार-क्रिया कर दूँ। मैं नहीं चाहता कि मेरे कर्मों का फल मेरी संतान को भोगना पड़े।
प्रभु सेवक-यह रईसों की पुरानी दलील है। वे अपनी वैभव-भक्ति को इसी परदे की आड़ में छिपाया करते हैं। अगर आपको भय है कि हमारे कामों से आपकी जाएदाद को हानि पहुँचेगी, तो बेहतर है कि आप इस संस्था से अलग हो जाएँ।
कुँवर साहब ने चिंतित स्वर में कहा-प्रभु, तुम्हें मालूम नहीं है कि इस संस्था की जड़ अभी कितनी कमजोर है! मुझे भय है कि यह अधिकारियों को तीव्र दृष्टि को एक क्षण भी सहन नहीं कर सकती। मेरा और तुम्हारा उद्देश्य एक ही है; मैं भी वही चाहता हूँ, जो तुम चाहते हो। लेकिन मैं बूढ़ा हूँ, मंद गति से चलना चाहता हूँ; तुम जवान हो, दौड़ना चाहते हो। मैं भी शासकों का कृपापात्र नहीं बनना चाहता। मैं बहुत पहले निश्चय कर चुका हूँ कि हमारा भाग्य हमारे हाथ में है, अपने कल्याण के लिए जो कुछ करेंगे, दूसरों से सहानुभूति या सहायता की आशा रखना व्यर्थ है। किंतु कम-से-कम हमारी संस्था को जीवित तो रहना चाहिए। मैं इसे अधिकारियों के संदेह की भेंट करके उसका अंतिम संस्कार नहीं करना चाहता।
प्रभु सेवक ने कुछ उत्तार न दिया। बात बढ़ जाने का भय था। मन में निश्चय किया कि अगर कुँवर साहब ने ज्यादा चीं-चपड़ की, तो उन्हें इस संस्था से अलग कर देंगे। धन का प्रश्न इतना जटिल नहीं है कि उसके लिए संस्था के मर्मस्थल पर आघात किया जाए। इंद्रदत्ता ने भी यही सलाह दी-कुँवर साहब को पृथक् कर देना चाहिए। हम औषधियाँ बाँटने और अकाल-पीड़ित प्रांतों में मवेशियों का चारा ढोने के लिए नहीं हैं। है वह भी हमारा काम, इससे हमें इनकार नहीं, लेकिन मैं उसे इतना गुरु नहीं समझता। यह विधवंस का समय है, निर्माण का समय तो पीछे आएगा। प्लेग, दुर्भिक्ष और बाढ़ से दुनिया कभी वीरान नहीं हुई और न होगी।
क्रमश: यहाँ तक नौबत आ पहुँची कि अब कितनी ही महत्तव की बातों में ये दोनों आदमी कुँवर साहब से परामर्श तक न लेते, बैठकर आपस ही में निश्चय कर लेते। चारों तरफ से अत्याचारों के वृत्तांत नित्य दफ्तर में आते रहते थे। कहीं-कहीं तो लोग इस संस्था की सहायता प्राप्त करने के लिए बड़ी-बड़ी रकमें देने पर तैयार हो जाते थे। इससे यह विश्वास होता जाता था कि संस्था पैरों पर खड़ी हो सकती है,उसे किसी स्थायी कोष की आवश्यकता नहीं। यदि उत्साही कार्यकर्ता हों, तो कभी धनाभाव नहीं हो सकता। ज्यों-ज्यों यह बात सिध्द होती जाती थी, कुँवर साहब का आधिपत्य लोगों को अप्रिय प्रतीत होता जाता था।
प्रभु सेवक की रचनाएँ इन दिनों क्रांतिकारी भावों से परिपूर्ण होती थीं। राष्ट्रीयता, द्वंद्व, संघर्ष के भाव प्रत्येक छंद से टपकते थे। उसने'नौका' नाम की एक ऐसी कविता लिखी, जिसे कविता-सागर का अनुपम रत्न कहना अनुचित न होगा। लोग पढ़ते थे और सिर धुनते थे। पहले ही पद्य में यात्री ने पूछा था-क्यों माँझी, नौका डूबेगी या पार लगेगी? माँझी ने उत्तार दिया था-यात्री, नौका डूबेगी; क्योंकि तुम्हारे मन में यह शंका इसी कारण हुई है। कोई ऐसी सभा, सम्मेलन, परिषद् न थी, जहाँ यह कविता न पढ़ी गई हो। साहित्य जगत् में हलचल-सी मच गई।
सेवक-दल पर प्रभु सेवक का प्रभुत्व दिन-दिन बढ़ता जाता था। प्राय: सभी सदस्यों को अब उन पर श्रध्दा हो गई थी, सभी प्राणपण से उनके आदेशों पर चलने को तैयार रहते थे। सब-के-सब एक रंग में रँगे हुए थे, राष्ट्रीयता के मद में चूर, न धन की चिंता, न घर-बार की फिक्र, रूखा-सूखा खानेवाले, मोटा पहननेवाले, जमीन पर सोकर रात काट देते थे, घर की ज़रूरत न थी, कभी-कभी वृक्ष के नीचे पडे रहते,कभी किसी झोंपड़े में। हाँ, उनके हृदयों में उच्च और पवित्र देशोपासना हिलोरें ले रही थी!
समस्त देश में संस्था की सुव्यवस्था की चर्चा हो रही थी। प्रभु सेवक देश के सर्व सम्मानित, सर्वजन-प्रिय नेताओं में थे। इतनी अल्पावस्था में यह कीर्ति! लोगों को आश्चर्य होता था। जगह-जगह से राष्ट्रीय सभाओं ने उन्हें आमंत्रिात करना शुरू किया। जहाँ जाते, लोग उनका भाषण सुनकर मुग्ध हो जाते थे।
पूना में राष्ट्रीय सभा का उत्सव था। प्रभु सेवक को निमंत्रण मिला। तुरंत इंद्रदत्ता को अपना कार्यभार सौंपा और दक्षिण के प्रदेशों में भ्रमण करने का इरादा करके चले। पूना में उनके स्वागत की खूब तैयारियाँ की गई थीं। यह नगर सेवक-दल का एक केंद्र भी था, और यहाँ का नायक एक बड़े जीवट का आदमी था, जिसने बर्लिन में इंजीनियरी की उपाधि प्राप्त की थी और तीन वर्ष के लिए इस दल में सम्मिलित हो गया था। उसका नगर में बड़ा प्रभाव था। वह अपने दल के सदस्यों के लिए स्टेशन पर खड़ा था। प्रभु सेवक का हृदय यह समारोह देखकर प्रफुल्लित हो गया। उसके मन ने कहा-यह मेरे नेतृत्व का प्रभाव है। यह उत्साह, यह निर्भीकता, यह जागृति इनमें कहाँ थी? मैंने ही इसका संचार किया। अब आशा होती है कि जिंदा रहा, तो कुछ-न-कुछ कर दिखाऊँगा। हा अभिमान!
संधया समय विशाल पंडाल में जब वह मंच पर खड़े हुए, तो कई हजार श्रोताओं को अपनी ओर श्रध्दापूर्ण नेत्रों से ताकते देखकर उनका हृदय पुलकित हो उठा। गैलरी में योरपियन महिलाएँ भी उपस्थित थीं। प्रांत के गवर्नर महोदय भी आए हुए थे। जिसकी कलम में यह जादू है, उसकी वाणी में क्या कुछ चमत्कार न होगा, सब यही देखना चाहते थे।

प्रभु सेवक का व्याख्यान शुरू हुआ। किसी को उनका परिचय कराने की जरूरत न थी। राजनीति की दार्शनिक मीमांसा करने लगे। राजनीति क्या है? उसकी आवश्यकता क्यों है? उसके पालन का क्या विधान है? किन दशाओं में उसकी अवज्ञा करना प्रजा का धर्म हो जाता है? उसके गुण-दोष क्या हैं? उन्होंने बड़ी विद्वता और अत्यंत निर्भीकता के साथ इन प्रश्नों की व्याख्या की। ऐसे जटिल और गहन विषय को अगर कोई सरल, बोधगम्य और मनोरंजक बना सकता था, तो वह प्रभु सेवक थे। लेकिन राजनीति भी संसार की उन महत्तवपूर्ण वस्तुओं में है, जो विश्लेषण और विवेचना की आँच नहीं सह सकती। उसका विवेचन उसके लिए घातक है, उस पर अज्ञान का परदा रहना ही अच्छा है। प्रभु सेवक ने परदा उठा दिया-सेनाओं की कतारें आँखों से अदृश्य हो गईं, न्यायालय के विशाल भवन जमीन पर गिर पड़े, प्रभुत्व और ऐश्वर्य के चिद्द मिटने लगे, सामने मोटे और उज्ज्वल अक्षरों में लिखा था-सर्वोत्ताम राजनीति राजनीति का अंत है। लेकिन ज्यों ही उनके मुख से ये शब्द निकले-हमारा देश राजनीति शून्य है। परवशता और आज्ञाकारिता में सीमाओं का अंतर है। त्यों ही सामने से पिस्तौल छूटने की आवाज आई, और गोली प्रभु सेवक के कान के पास से निकलकर पीछे की ओर दीवार में लगी। रात का समय था; कुछ पता न चला, किसने यह आघात किया। संदेह हुआ, किसी योरपियन की शरारत है। लोग गैलरियों की ओर दौडे। सहसा प्रभु सेवक ने उच्च स्वर में कहा-मैं उस प्राणी को क्षमा करता हूँ, जिसने मुझ पर आघात किया है। उसका जी चाहे, तो वह फिर मुझ पर निशाना मार सकता है। मेरा पक्ष लेकर किसी को इसका प्रतिकार करने का अधिकार नहीं है। मैं अपने विचारों का प्रचार करने आया हूँ, आघातों का प्रत्याघात करने नहीं।
एक ओर से आवाज आई-यह राजनीति की आवश्यकता का उज्ज्वल प्रमाण है।
सभा उठ गई। योरपियन लोग पीछे के द्वार से निकल गए। बाहर सशस्त्र पुलिस आ पहुँची थी।
दूसरे दिन संधया को प्रभु सेवक के नाम तार आया-सेवक-दल की प्रबंध-कारिणी समिति आपके व्याख्यान को नापा करती है, और अनुरोध करती है कि आप लौट आएँ, वरना यह आपके व्याख्यानों की उत्तारदायी न होगी।
प्रभु सेवक ने तार के कागज को फाड़कर टुकड़े-टुकड़े कर डाला और उसे पैरों से कुचलते हुए आप-ही-आप बोले-धूर्त, कायर, रँगा हुआ सियार। राष्ट्रीयता का दम भरता है, जाति की सेवा करेगा! एक व्याख्यान ने कायापलट कर दी। उँगली में लहू लगाकर शहीदों में नाम लिखाना चाहता है। जाति-सेवा को बच्चों का खेल समझ रखा है। यह बच्चों का खेल नहीं है, साँप के मुँह में उँगली डालना है, शेर से पंजा लेना है। यदि अपने प्राण और अपनी सम्पत्तिा इतनी प्यारी है, तो यह स्वाँग क्यों भरते हो? जाओ, तुम-जैसे देशभक्तों के बगैर देश की कोई हानि नहीं।
उन्होंने उसी वक्त तार का जवाब दिया-मैं प्रबंध-कारिणी समिति के अधीन रहना अपने लिए अपमानजनक समझता हूँ। मेरा उससे कोई सम्बंध नहीं।
आधा घंटे बाद दूसरा पत्र आया। इस पर सरकार की मुहर थी :
माई डियर सेवक,
मैं नहीं कह सकता कि कल आपका व्याख्यान सुनकर मुझे कितना लाभ और आनंद प्राप्त हुआ। मैं यह अत्युक्ति के भाव से नहीं कहता कि राजनीति की ऐसी विद्वतापूर्ण और तात्तिवक मीमांसा आज तक मैंने कहीं नहीं सुनी थी। नियमों ने मेरी जबान बंद कर रखी है, लेकिन मैं आपके भावों और विचारों का आदर करता हूँ और ईश्वर से प्रार्थना करता हूँ कि वह दिन जल्द आए, जब हम राजनीति का मर्म समझें और उसके सर्वोच्च सिध्दांतों का पालन कर सकें। केवल एक ही ऐसा व्यक्ति है, जिसे आपकी स्पष्ट बात असह्य हुई, और मुझे बड़े दु:ख और लज्जा के साथ स्वीकार करना पड़ता है कि वह व्यक्ति योरपियन है। मैं योरपियन समाज की ओर से इस कायरतापूर्ण और अमानुषिक आघात पर शोक और घृणा प्रकट करता हूँ। मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ कि समस्त योरपियन समाज को आपसे हार्दिक सहानुभूति है। यदि मैं उस नर-पिशाच का पता लगाने में सफल हुआ (उसका कल से पता नहीं है), तो आपको इसकी सूचना देने में मुझसे अधिक आनंद और किसी को न होगा।
आपका
एफ. विल्सन
प्रभु सेवक ने इस पत्र को दुबारा पढ़ा। उनके हृदय में गुदगुदी-सी होने लगी। बड़ी सावधानी से उसे अपने संदूक में रख दिया। कोई और वहाँ होता, तो जरूर पढ़कर सुनाते। वह गर्वोन्मत्ता होकर कमरे में टहलने लगे। यह है जीवित जातियों की उदारता, विशाल-हृदयता,गुणग्राहकता! उन्होंने स्वाधीनता का आनंद उठाया है। स्वाधीनता के लिए बलिदान किए हैं, और इसका महत्तव जानते हैं। जिसका समस्त जीवन खुशामद और मुखापेक्षा में गुजरा हो, वह स्वाधीनता का महत्तव क्या समझ सकता है! मरने के दिन सिर पर आ जाते हैं, तो हम कितने ईश्वर-भक्त बन जाते हैं। भरतसिंह भी उसी तरफ गए होते, अब तक राम-नाम का जाप करते होते, वह तो विनय ने इधर फेर लिया। यह उन्हीं का प्रभाव था। विनय, इस अवसर पर तुम्हारी जरूरत है, बड़ी जरूरत है, तुम कहाँ हो? आकर देखो, तुम्हारी बोई हुई खेती का क्या हाल है! उसके रक्षक उसके भक्षक बने जा रहे हैं।

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